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ग़ज़ल
तिरे लबों से है अलबत्ता इक हलावत-ए-ज़ीस्त
नबात-ए-क़ंद-ए-शकर अंग्बीं तो कुछ भी नहीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
किसी ने ज़हर मिला कर न दे दिया हो तुझे
मैं चख तो लूँ तिरे क़ंद ओ नबात अच्छी तरह