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ग़ज़ल
न तन में ख़ून फ़राहम न अश्क आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वुज़ू ही सही
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मिट्टी की मोहब्बत में हम आशुफ़्ता-सरों ने
वो क़र्ज़ उतारे हैं कि वाजिब भी नहीं थे
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
फिर मुझे लिखना जो वस्फ़-ए-रू-ए-जानाँ हो गया
वाजिब इस जा पर क़लम को सर झुकाना हो गया
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
न वाजिब ही कहा जावे न सादिक़ मुमतना उस पर
किया तश्ख़ीस कुछ हम ने न हरगिज़ शख़्स-ए-इम्काँ को
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
सुर्ख़ रहती हैं मिरी आँखें लहू रोने से शैख़
मय अगर साबित हो मुझ पर वाजिब अल-ताज़ीर हूँ
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
तुझे वाजिब है जाना उर्स में अपने शहीदों के
सुना हूँ मैं कि उन का आज संदल कल चराग़ाँ है