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ग़ज़ल
हम से 'वजाहत' मत पूछो इस दौर में कैसे ज़िंदा हैं
रातों को हम जागते हैं और नींद अक्सर उड़ जाती है
उस्ताद वजाहत हुसैन ख़ाँ
ग़ज़ल
जुनूँ जोश-ए-अमल है कर नया इस में असर पैदा
नए फ़र्हाद-ओ-तेशे हों नए कोह-ओ-कमर पैदा
वजाहत अली संदैलवी
ग़ज़ल
मैं तो समझा था कि है उस से शनासाई बहुत
उस से मिल कर हुई लेकिन मिरी रुस्वाई बहुत
उस्ताद वजाहत हुसैन ख़ाँ
ग़ज़ल
'अमल से प्यार से मोहकम यक़ीं से निकलेगा
ये पेड़ वो है जो बंजर ज़मीं से निकलेगा
उस्ताद वजाहत हुसैन ख़ाँ
ग़ज़ल
'वजाहत' इस क़दर खाए हैं धोके हम ने अपनों से
भुलाना लाख चाहें फिर भी हैरानी नहीं जाती
उस्ताद वजाहत हुसैन ख़ाँ
ग़ज़ल
याद से तेरी फ़ज़ा-ए-शब मुनव्वर हो गई
तेरी ख़ुशबू से मिरी जाँ तक मोअ'त्तर हो गई
वजाहत अली संदैलवी
ग़ज़ल
कभी ज़मीं तो कभी आसमाँ से गुज़री है
दु'आ जो हो के तिरे आस्ताँ से गुज़री है
उस्ताद वजाहत हुसैन ख़ाँ
ग़ज़ल
तेरी बातों में 'वजाहत' है बला की हिकमत
दब ही जाते हैं वो तुझ से जो जिगर रखते हैं