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ग़ज़ल
जब वो जमाल-ए-दिल-फ़रोज़ सूरत-ए-मेहर-ए-नीमरोज़
आप ही हो नज़ारा-सोज़ पर्दे में मुँह छुपाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वो अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़्अ क्यूँ छोड़ें
सुबुक-सर बन के क्या पूछें कि हम से सरगिराँ क्यूँ हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अनोखी वज़्अ है सारे ज़माने से निराले हैं
ये आशिक़ कौन सी बस्ती के या-रब रहने वाले हैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
इश्क़ है अपना पाएदार तेरी वफ़ा है उस्तुवार
हम तो हलाक-ए-वर्ज़िश-ए-फ़र्ज़-ए-मुहाल हो गए
जौन एलिया
ग़ज़ल
कहीं बोसे की मत जुरअत दिला कर बैठियो उन से
अभी इस हद को वो कैफ़ी नहीं हुश्यार बैठे हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
दर्द का कहना चीख़ ही उट्ठो दिल का कहना वज़्अ निभाओ
सब कुछ सहना चुप चुप रहना काम है इज़्ज़त-दारों का
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
कभी मिलते थे वो हम से ज़माना याद आता है
बदल कर वज़्अ छुप कर शब को आना याद आता है