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ग़ज़ल
छोड़ना घर का हमें याद है 'जालिब' नहीं भूले
था वतन ज़ेहन में अपने कोई ज़िंदाँ तो नहीं था
हबीब जालिब
ग़ज़ल
सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्र-ए-वतन
तो चश्म-ए-सुब्ह में आँसू उभरने लगते हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
वतन की सर-ज़मीं से इश्क़ ओ उल्फ़त हम भी रखते हैं
खटकती जो रहे दिल में वो हसरत हम भी रखते हैं
जोश मलसियानी
ग़ज़ल
ये भी क्या कम है ग़रीब-उल-वतनी में कि 'फ़राज़'
हम को बे-मेहरी-ए-अर्बाब-ए-वतन याद नहीं
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
है जिन्हें सब से ज़ियादा दा'वा-ए-हुब्बुल-वतन
आज उन की वज्ह से हुब्ब-ए-वतन रुस्वा तो है