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ग़ज़ल
उफ़ ये ज़मीं की गर्दिशें आह ये ग़म की ठोकरें
ये भी तो बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता के शाने हिला के रह गईं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
हुस्न को क्या दुश्मनी है इश्क़ को क्या बैर है
अपने ही क़दमों की ख़ुद ही ठोकरें खाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
'शाइर' उन की दोस्ती का अब भी दम भरते हैं आप
ठोकरें खा कर तो सुनते हैं सँभल जाते हैं लोग
हिमायत अली शाएर
ग़ज़ल
ख़िराम-ए-नाज़ और उन का ख़िराम-ए-नाज़ क्या कहना
ज़माना ठोकरें खाता हुआ महसूस होता है
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
तिरी तक़लीद से कब्क-ए-दरी ने ठोकरें खाईं
चला जब जानवर इंसाँ की चाल उस का चलन बिगड़ा
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
आँख भी मूँद के गुज़रूँ तो गुज़र जाता हूँ