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ग़ज़ल
पए फ़ातिहा कोई आए क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ
कोई आ के शम' जलाए क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
सौ रूप भरे जीने के लिए बैठे हैं हज़ारों ज़हर पिए
ठोकर न लगाना हम ख़ुद हैं गिरती हुई दीवारों की तरह
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
शिव तो नहीं हम फिर भी हम ने दुनिया भर के ज़हर पिए
इतनी कड़वाहट है मुँह में कैसे मीठी बात करें
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
हम मोतकिफ़-ए-ख़ल्वत-ए-बुत-ख़ाना हैं ऐ शैख़
जाता है तो जा तू पए-तौफ़-ए-हरम अच्छा