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ग़ज़ल
तू अभी रहगुज़र में है क़ैद-ए-मक़ाम से गुज़र
मिस्र ओ हिजाज़ से गुज़र पारस ओ शाम से गुज़र
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं
मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
चश्म-ए-फ़ैज़ और दस्त वो पारस-सिफ़त जब छू गए
मुझ को मिट्टी से उठाया और फ़लक पर कर दिया
क़ैसर हयात
ग़ज़ल
यूँ दाद-ए-सुख़न मुझ को देते हैं इराक़ ओ पारस
ये काफ़िर-ए-हिन्दी है बे-तेग़-ओ-सिनाँ ख़ूँ-रेज़
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मैं अपने साथ रखता हूँ सदा अख़्लाक़ का पारस
इसी पत्थर से मिट्टी छू के मैं सोना बनाता हूँ