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ग़ज़ल
रातें महकी, साँसें दहकी, नज़रें बहकी, रुत लहकी
सप्न सलोना, प्रेम खिलौना, फूल बिछौना, वो पहलू
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
रुत बीत चुकी है बरखा की और प्रीत के मारे रहते हैं
रोते हैं रोने वालों की आँखों में सावन रहता है