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ग़ज़ल
वही गुलशन है लेकिन वक़्त की पर्वाज़ तो देखो
कोई ताइर नहीं पिछले बरस के आशियानों में
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
दिन-भर एक एक से वो लड़ता-झगड़ता भी बहुत
रात के पिछले-पहर सब को दुआ देता था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
वो ख़्वाब देखा था शहज़ादियों ने पिछले पहर
फिर उस के बाद मुक़द्दर में ताज ओ तख़्त न था
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
उस को तन्हा कर गई करवट कोई पिछले पहर की
फिर उड़ा भागा वो सारा दिन नगर भर में अकेला