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ग़ज़ल
ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो रह-ए-आम तक न पहुँचे
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत तिरे नाम तक न पहुँचे
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
'अख़्तर' दयार-ए-हुस्न में पहुँचे हैं मर के हम
क्यूँ-कर हुआ है तय ये सफ़र कुछ न पूछिए
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
क्या त'अज्जुब कि मिरी रूह-ए-रवाँ तक पहुँचे
पहले कोई मिरे नग़्मों की ज़बाँ तक पहुँचे
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
यूँही तो नहीं दश्त में पहुँचे यूँही तो नहीं जोग लिया
बस्ती बस्ती काँटे देखे जंगल जंगल फूल मियाँ