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ग़ज़ल
नहीं मिन्नत-कश-ए-एहसाँ किसी का रहगुज़र में
मैं तन्हा हूँ सफ़र भी पा-पियादा कर रहा हूँ
वक़ार मानवी
ग़ज़ल
मुझे शतरंज के ख़ानों में चलना तू सिखाएगा
मैं फ़र्ज़ी बन चुका कब का तू अब तक इक पियादा है
औरंग ज़ेब
ग़ज़ल
ख़म-ए-जादा से मैं पियादा-पा कभी देख लेता हूँ ख़्वाब-सा
कहीं दूर जैसे धुआँ उठा किसी भूली-बिसरी सराए से
रईस फ़रोग़
ग़ज़ल
अजीब अहमक़ है और सादा सवार हो कर हुआ पियादा
किधर चला ये नहीं है जादा तू क्यूँ भटकता है बन के अंदर