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ग़ज़ल
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ख़ुदा गर मेरे हाथों में दिलासे की चिलम भरता
मैं अहल-ए-हिज्र के ठंडे पड़े सीनों में दम भरता
आशू मिश्रा
ग़ज़ल
हो अगर ये दिल-ए-सोज़ाँ तिरे क़ुलियाँ की चिलम
आब-ए-नय से जो ये नर्सल न जले ख़ुश्क तो हो
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
इक ताज किसी सर पे जो हम देख रहे हैं
ऐसा है कि हुक़्क़े पे चिलम देख रहे हैं