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ग़ज़ल
कशिश से कब है ख़ाली तिश्ना-कामी तिश्ना-कामों की
कि बढ़ कर मौजा-ए-दरिया लब-ए-साहिल से मिलता है
जलील मानिकपूरी
ग़ज़ल
गुलू-ए-ख़ुश्क उन को भेजता है दे के मश्कीज़ा
कुछ आँसू तिश्ना-कामों के अलम-बरदार होते हैं
अब्बास क़मर
ग़ज़ल
चंद अधूरे कामों ने कुछ वक़्त गिरफ़्ता लोगों ने
दिन पुर्ज़े पुर्ज़े कर डाला रात को पारा पारा किया
सऊद उस्मानी
ग़ज़ल
दे ख़ुदा ज़र तो कोई मय-कदा आबाद करें
अच्छे कामों में जो हो सर्फ़ वो माल अच्छा है
हफ़ीज़ जौनपुरी
ग़ज़ल
सभी कामों को अपने हम निभाते हैं सलीक़े से
उलझ कर तेरी यादों में निवाले भूल जाते हैं
नासिर मारूफ़
ग़ज़ल
तिरे मय-कदे का साक़ी ये चलन भी क्या चलन है
कि जो हाथ तिश्ना-कामों के भी जाम तक न पहुँचे