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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मैं तो उस दिन से हिरासाँ हूँ कि जब हुक्म मिले
ख़ुश्क फूलों को किताबों में न रक्खे कोई
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
उन से पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुम ने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर