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ग़ज़ल
रात-भर चाँद की गलियों में फिराती है मुझे
ज़िंदगी कितने हसीं ख़्वाब दिखाती है मुझे
कफ़ील आज़र अमरोहवी
ग़ज़ल
सुकूँ थोड़ा सा पाया धूप के ठंडे मकानों में
बहुत जलने लगा था जिस्म बर्फ़ीली चटानों में
कफ़ील आज़र अमरोहवी
ग़ज़ल
गुम-शुदा तन्हाइयों की राज़-दाँ अच्छी तो हो
मैं यहाँ अच्छा नहीं हूँ तुम वहाँ अच्छी तो हो
कफ़ील आज़र अमरोहवी
ग़ज़ल
मुझ से अब तक ये गिला है मिरे ग़म-ख़्वारों को
क्यूँ छुआ मैं ने तिरी याद के अँगारों को
कफ़ील आज़र अमरोहवी
ग़ज़ल
तुम से राह-ओ-रस्म बढ़ा कर दीवाने कहलाएँ क्यूँ
जिन गलियों में पत्थर बरसें उन गलियों में जाएँ क्यूँ
कफ़ील आज़र अमरोहवी
ग़ज़ल
ये बे-ख़ुदी है मिरे ऐश-ए-ज़िंदगी की कफ़ील
निगाह-ए-शौक़ अभी महव-ए-रू-ए-जानाँ है