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ग़ज़ल
फ़क़ीरों को नहीं कुछ ज़ीनत-ए-दुनिया से मतलब है
मैं ख़ुश कम्बल में हूँ ओढ़े दोशाले जिस का जी चाहे
आग़ा अकबराबादी
ग़ज़ल
वोट न बेचें क्यूँ बेचारे बस कम्बल के बदले में
जो सर्दी में अपनी चमड़ी बिस्तर करें लिहाफ़ करें
सरदार पंछी
ग़ज़ल
सुर्ख़ सुनहरा साफ़ा बाँधे शहज़ादा घोड़े से उतरा
काले ग़ार से कम्बल ओढ़े जोगी निकला रात हुई
बशीर बद्र
ग़ज़ल
पहुँचा फ़लक को फ़क़्र का रुत्बा हुज़ूर-ए-ऐश
कम्बल चढ़े हैं चर्ख़-ए-दो-शालों के सामने
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
रात जिस दम अपने कम्बल में छुपा लेगी हमें
हाथ मलती और ठिठुरती सर्दियाँ रह जाएँगी
अशोक मिज़ाज बद्र
ग़ज़ल
फ़ुटपाथों पर रहने वाले थर-थर काँपते रहते हैं
दौलत वाले सोते हैं जब कम्बल और रज़ाई में