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ग़ज़ल
एक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी रूठी लगती हैं
एक वो दिन जब आओ खेलें सारी गलियाँ कहती थीं
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
क्यूँकर शिकार-ए-हुस्न न खेलें यहाँ के लोग
परियों को फाँस लेते हैं हिन्दोस्ताँ के लोग
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
सब इस सूरत से खेलें रंग 'नावक' एक दिल हो कर
रहे फिर मर्द औरत की न कुछ पहचान होली में
नावक लखनवी
ग़ज़ल
मिरा घर ग़ैर का घर तो नहीं क्यूँ-कर वो खुल खेलें
निगाहें उठ नहीं सकतीं इशारा हो नहीं सकता
हसन बरेलवी
ग़ज़ल
ये नाज़ुक चीज़ है दिल आप इस से खेल न खेलें
दिलों के खेल पूरे खेलना दुश्वार होता है