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ग़ज़ल
हश्र में पेश-ए-ख़ुदा फ़ैसला इस का होगा
ज़िंदगी में मुझे उस गब्र को तरसाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
फ़रेब-ए-हुस्न से गब्र-ओ-मुसलमाँ का चलन बिगड़ा
ख़ुदा की याद भूला शैख़ बुत से बरहमन बिगड़ा
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
कैसे भूले हुए हैं गब्र ओ मुसलमाँ दोनों
दैर में बुत है न काबे में ख़ुदा रक्खा है
लाला माधव राम जौहर
ग़ज़ल
ढूँडते फिरते हो अब टूटे हुए दिल में पनाह
दर्द से ख़ाली दिल-ए-गब्र-ओ-मुसलमाँ देख कर
यगाना चंगेज़ी
ग़ज़ल
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कोई बुत-ख़ाने को जाता है कोई का'बे को
फिर रहे गब्र-ओ-मुसलमाँ हैं तिरी घात में क्या
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
निकले जो राह-ए-दैर से इक ही निगाह-ए-मस्त में
गब्र का सब्र खो दिया बुत को भी बुत बना दिया
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
फ़ित्ना-अंगेज़ी भी छुपती है कहीं पर्दे में
सुनते हैं गब्र ओ मुसलमाँ से तिरे नाम को हम
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
ख़ाक में भी जो मिलूँ मैं तो किसी सहरा में
तुम से मिट्टी भी न ऐ गब्र ओ मुसलमाँ माँगूँ
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
ये उस से ज़ियाँ-कार तो वो इस से बद आएँ
जाऊँ मैं कहाँ गब्र ओ मुसलमाँ से निकल कर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
किस से हम झगड़ें नहीं अपना किसी मिल्लत में मेल
इश्क़ के बंदे को क्या गब्र-ओ-मुसलमाँ से ग़रज़