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ग़ज़ल
हरम क्या दैर क्या दोनों ये वीराँ होते जाते हैं
तुम्हारे मो'तक़िद गबरू मुसलमाँ होते जाते हैं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
ये मुटियारें छैल-छबेली ये गबरू बाँके अलबेले
जाती है किस रूप नगर को ये टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी
शुरेश चंद्र शौक
ग़ज़ल
जी में जो आती है कर गुज़रो कहीं ऐसा न हो
कल पशेमाँ हों कि क्यूँ दिल का कहा माना नहीं
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
जिन में मिल जाते थे हम तुम कभी आते जाते
जब भी उन गलियों से गुज़रोगे तो याद आऊँगा
राजेन्द्र नाथ रहबर
ग़ज़ल
हश्र में पेश-ए-ख़ुदा फ़ैसला इस का होगा
ज़िंदगी में मुझे उस गब्र को तरसाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
कल ये ताब-ओ-तवाँ न रहेगी ठंडा हो जाएगा लहू
नाम-ए-ख़ुदा हो जवान अभी कुछ कर गुज़रो तो बेहतर है
नासिर काज़मी
ग़ज़ल
ख़ाक-ए-रह-ए-जानाँ पर कुछ ख़ूँ था गिरौ अपना
इस फ़स्ल में मुमकिन है ये क़र्ज़ उतर जाए