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ग़ज़ल
सातों सुरों में मुतरिब गत भी ये गुथ रहे हैं
हैं सम पे आ ठहरते यकजा नदान आठों
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
हमारी आह जैसे लख़्त-ए-दिल से गुथ के निकले है
कहीं देखी हैं तीं इस लुत्फ़ से फूलों की भी छड़ियाँ
क़ाएम चाँदपुरी
ग़ज़ल
दाम-ए-बला से अब 'बक़ा' हम से असीर कब छुटें
रिश्ता-ए-ग़म से गुथ गए बाल-ब-बाल पर-ब-पर
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
मेरी हिम्मत देखना मेरी तबीअत देखना
जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
ख़ुदा अलीगढ़ के मदरसे को तमाम अमराज़ से शिफ़ा दे
भरे हुए हैं रईस-ज़ादे अमीर-ज़ादे शरीफ़-ज़ादे
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
आप की इक ज़ुल्फ़ सुलझाने को लाखों हाथ हैं
मेरी गुत्थी भी कोई आ कर कभी सुलझाए है