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ग़ज़ल
मय-ए-गुलफ़ाम भी है साज़-ए-इशरत भी है साक़ी भी
बहुत मुश्किल है आशोब-ए-हक़ीक़त से गुज़र जाना
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
साक़ी-ए-गुलफ़ाम बा-सद एहतिमाम आ ही गया
नग़्मा बर लब ख़ुम ब सर बादा ब जाम आ ही गया
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
वही परियाँ हैं अब भी राजा इन्दर के अखाड़े में
मगर शहज़ादा-ए-गुलफ़ाम पर शैदा नहीं होतीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
वही मेरे लिए साक़ी मय-ए-गुलफ़ाम बन जाए
जो अपने दस्त-ए-नाज़ुक से पिला दे मुझ को तू पानी