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ग़ज़ल
मुख़्तारी के लब सिलवाना जब्र अजब-तर ठहरा है
हैजान-ए-ग़ैरत बरपा है अल्लाह-हू के बाड़े में
जौन एलिया
ग़ज़ल
किनारा कर रहा है रूह से हैजान-ए-सरताबी
कि गर्दन जुस्तुजू के शौक़ में ख़म होती जाती है
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
कहीं ज़िया-ए-तबस्सुम न हो करम-फ़रमा
जुमूद-ए-क़ल्ब में हैजान-ए-ज़िंदगी क्यूँ है
हबीब अहमद सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
रोज़-ए-फ़ुर्क़त ने किया ताइर-ए-दिल को हैजान
गुल-ए-ख़ुर्शीद मुझे जंगल-ए-शहबाज़ हुआ