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ग़ज़ल
हवाएँ जिन की अंधी खिड़कियों पर सर पटकती हैं
मैं उन कमरों में फिर शमएँ जला कर देख लेता हूँ
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
था दैर-ओ-हरम में क्या रखा जिस सम्त गया टकरा के फिरा
किस पर्दे के पीछे है शोअ'ला अंधा परवाना क्या जाने
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
ये मत पूछो इस दुनिया ने कौन से अब त्यौहार दिए
दी हम को अंधी दीवाली ख़ून की होली बाबू-जी
कुंवर बेचैन
ग़ज़ल
वर्ना मैं भी झुक ही जाता ज़ुल्म की अंधी चौखट पर
अच्छा रहा कि मुझ को अपने शाइ'र का सर याद रहा
कुंवर बेचैन
ग़ज़ल
उस की आदत है घिरे रहना धुएँ के जाल में
उस के सारे रोग इक अंधी परेशानी के हैं