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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
जहाँ के ज़ुल्म सहते सहते फ़ाख़्ता भी बारहा
अक़ब से पंजे मारती है फिर उक़ाब की तरह
वन्दना भारद्वाज तिवारी 'वाणी'
ग़ज़ल
अब वो मोड़ आया कि हर पल मो'तबर होने को है
देखना मंज़र नया दीवार दर होने को है