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ग़ज़ल
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
जो सोचा है 'अज़ीज़ों की समझ में आ नहीं सकता
शरारत अब के ये की है शरारत छोड़ दी हम ने
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
रहे हिर्स-ओ-हवा दाइम 'अज़ीज़ो साथ जब अपने
न क्यूँकर फ़िक्र-ए-बेश-ओ-कम हमें भी हो तुम्हें भी हो
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
मिरे अज़ीज़ो मिरे रफ़ीक़ो चलो कोई दास्तान छेड़ो
ग़म-ए-ज़माना की बात छोड़ो ये ग़म तो अब साज़गार सा है
साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
सँभाला होश जब हम ने तो कुछ मुख़्लिस अज़ीज़ों ने
कई चेहरे दिए और एक पत्थर की ज़बाँ हम को