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ग़ज़ल
सुन रख ओ ख़ाक में आशिक़ को मिलाने वाले
अर्श-ए-आज़म के ये नाले हैं बुलाने वाले
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
ग़ज़ल
चौंक उठता है ख़ुदा भी आसमानों का ज़वाल
‘अर्श-ए-आ’ज़म को भी अक्सर यूँ हिला देता है कौन
खातिर हाफ़़िज़ी
ग़ज़ल
उस के कानों तक रसाई क्यूँ नहीं हैरान हूँ
अर्श-ए-आज़म तक तो मेरे शब के नाले जाते हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
ख़याल उन का परे है अर्श-ए-आज़म से कहीं साक़ी
ग़रज़ कुछ और धुन में इस घड़ी मय-ख़्वार बैठे हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
अदब से अर्श-ए-आज़म भी झुका देता है सर अपना
हरीम-ए-क़ुद्स में इंसान का जब नाम आता है
शिफ़ा ग्वालियारी
ग़ज़ल
जबीं उस दर पे है वो दर है ऊँचा अर्श-ए-आज़म से
बुलंद औज-ए-सुरय्या से मुक़द्दर यूँ भी है यूँ भी
क़ैसर हैदरी देहलवी
ग़ज़ल
अर्श-ए-आज़म से भी ऊँची हो गई मेरी फ़ुग़ाँ
आज तक पाया न ऐ 'आज़ाद' औज-ए-बाम-ए-इ'श्क़
अबुल कलाम आज़ाद
ग़ज़ल
का'बा जिस को लोग कहते हैं मकाँ है यार का
अर्श-ए-आज़म नाम रखते हैं ज़मीन-ए-कू-ए-दोस्त
रशीद लखनवी
ग़ज़ल
'अर्श-ए-आ'ज़म पर रहे क्यूँकर न मजनूँ का दिमाग़
लैलत-उल-मेराज रंग-ए-ज़ुल्फ़-ए-लैला हो गया
मीर शम्सुद्दीन फ़ैज़
ग़ज़ल
तुम लुत्फ़ को जौर बताते हो तुम नाहक़ शोर मचाते हो
तुम झूटी बात बनाते हो ऐ 'अर्श' ये अच्छी बात नहीं
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
मिलने को मिलेगा बिल-आख़िर ऐ 'अर्श' सुकून-ए-साहिल भी
तूफ़ान-ए-हवादिस से लेकिन बच जाए सफ़ीना मुश्किल है