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ग़ज़ल
इस जानिब हम उस जानिब तुम बीच में हाइल एक अलाव
कब तक हम तुम अपने अपने ख़्वाबों को झुलसाएँगे
बशर नवाज़
ग़ज़ल
बुझ चुका जो क्यों वो सुलगाऊँ मोहब्बत का अलाव
अब तलक झेली जफ़ा की सख़्तियाँ ही ठीक हैं
ए.आर.साहिल "अलीग"
ग़ज़ल
तिरी रहमतों के दयार में तिरे बादलों को पता नहीं
अभी आग सर्द हुई नहीं अभी इक अलाव जला नहीं
ऐतबार साजिद
ग़ज़ल
यूँ धुआँ देने लगा है जिस्म और जाँ का अलाव
जैसे रग रग में रवाँ इक आतिश-ए-सय्याल है
अकबर हैदराबादी
ग़ज़ल
बड़ी सर्द रात थी कल मगर बड़ी आँच थी बड़ा ताव था
सभी तापते रहे रात भर तिरा ज़िक्र क्या था अलाव था