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ग़ज़ल
मिज़ाज-ए-अहल-ए-दिल की इम्तियाज़ी शान तो देखो
जो दुश्मन जान-ओ-दिल का है उसी से प्यार हो जाए
कँवल एम ए
ग़ज़ल
अहल-ए-वफ़ा से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ कर लो पर इक बात कहें
कल तुम इन को याद करोगे कल तुम इन्हें पुकारोगे
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
अहल-ए-वफ़ा से बात न करना होगा तिरा उसूल मियाँ
हम क्यूँ छोड़ें उन गलियों के फेरों का मामूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
अहल-ए-ख़िरद तादीब की ख़ातिर पाथर ले ले आ पहुँचे
जब कभी हम ने शहर-ए-ग़ज़ल में दिल की बात बयाँ की है
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
कहे जाता है जो वाइज़ सुने जाते हैं हम लेकिन
जो अहल-ए-दिल नहीं उस को हमारे दिल से क्या निस्बत
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
कल इसी बस्ती में कुछ अहल-ए-वफ़ा होते तो थे
इस क़दर अहल-ए-हवस की गर्म-बाज़ारी न थी
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
गर्द उड़ाई जो सियासत ने वो आख़िर धुल गई
अहल-ए-दिल की ख़ाक में भी ज़िंदगी पाई गई