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ग़ज़ल
अगर ये सर्द-मेहरी तुज को आसाइश न सिखलाती
तो क्यूँकर आफ़्ताब-ए-हुस्न की गर्मी में नींद आती
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
उस रश्क-ए-मह की बज़्म में जाते ही 'आफ़्ताब'
दिल सा रफ़ीक़ मेरा मिरे सात से गया