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ग़ज़ल
आराइश-ए-जमाल की कमसिन को क्या तमीज़
उलझी है उस की ज़ुल्फ़-ए-शिकन-दर-शिकन तमाम
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
ग़ज़ल
कुछ ऐसे ख़ाक उड़ाई है दश्त-ए-हू में 'जमाल'
कि जज़्ब-ए-शौक़ भी तफ़रीक़-ए-मा-ओ-तू भी गई
ख़ालिद जमाल
ग़ज़ल
क्या सुनाएँ हम शिकस्त-ए-दिल का अफ़्साना 'जमाल'
ये वो शीशा है जो हर पत्थर से टकराया गया
जमाल नक़वी
ग़ज़ल
दर-हक़ीक़त ग़म अगर है ग़म मुझे ये है 'जमाल'
जिन पे तकिया था वो पत्थर बाम-ओ-दर से गिर गए
जमाल हाश्मी
ग़ज़ल
ये 'जमाल' मय-कदा है नहीं याँ कोई तकल्लुफ़
ओ अरब अजम के झगड़े न हसब नसब न ज़ातें