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ग़ज़ल
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
जब हुआ इरफ़ाँ तो ग़म आराम-ए-जाँ बनता गया
सोज़-ए-जानाँ दिल में सोज़-ए-दीगराँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
या-रब ये मक़ाम-ए-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल नाकाम नहीं
तस्कीन है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
चैन से रहने न दे इन को न ख़ुद आराम कर
मुस्तइद हैं जो ख़िलाफ़त को मिटाने के लिए