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ग़ज़ल
यहाँ शुऊ'र के नाख़ुन तो हम भी रखते हैं
मगर ये उक़्दा-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र कहाँ खोलें
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
ज़ख़्म देते जाएँ लेकिन फ़िक्र-ए-मरहम भी करें
दर्द जब हद से सिवा हो जाए तो कम भी करें
शकील इबन-ए-शरफ़
ग़ज़ल
'फ़ज़ा' तुम उलझे रहे फ़िक्र ओ फ़लसफ़े में यहाँ
ब-नाम-ए-इश्क़ वहाँ क़ुरअ-ए-हुनर निकला
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
तर्ज़-ए-एहसास में नुदरत थी उधर ही कितनी
फ़िक्र-ओ-जज़्बे में तवाज़ुन है इधर ही कितना