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ग़ज़ल
ये माना पर्दा-दारी भी बहुत पुर-लुत्फ़ होती है
बुरा क्या है मोहब्बत का अगर इज़हार हो जाए
कँवल एम ए
ग़ज़ल
गिरफ़्तार-ए-मोहब्बत कर लिया बातों ही बातों में
तसलसुल से नुमायाँ हो गई ज़ंजीर की सूरत
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
भूले हैं अपने फ़र्ज़ को ये ख़्वाजगान-ए-हिन्द
हक़ देने में भी करते हैं इंकार आज-कल