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ग़ज़ल
जहाँ लब कोशिश-ए-इज़हार-ए-मतलब को तरसते हैं
वहाँ हर साँस को इक दास्ताँ कहना ही पड़ता है
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
झुक गया सर अर्ज़-ए-मतलब पर बरा-ए-इख़्तिसार
हम ने चाहा था कि अफ़्साना-दर-अफ़्साना कहें
कँवल एम ए
ग़ज़ल
ये माना पर्दा-दारी भी बहुत पुर-लुत्फ़ होती है
बुरा क्या है मोहब्बत का अगर इज़हार हो जाए
कँवल एम ए
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
बात करने से भी नफ़रत हो गई दिलदार को
वाह-रे इज़हार-ए-उल्फ़त वाह-रे तासीर-ए-इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
इक जुर्म और फ़र्द-ए-जराएम में बढ़ गया
या'नी न दर्द-ए-दिल का हो इज़हार आज-कल
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
जज़्बा-ए-शौक़ का इज़हार न होने पाए
दिल की बे-ताबियाँ नज़रों से गिरा देती हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
अकेला पा के उन को अर्ज़-ए-मतलब कर ही लेता हूँ
न चाहूँ तो भी इज़्हार-ए-तमन्ना हो ही जाता है
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
बोस-ओ-कनार के लिए ये सब फ़रेब हैं
इज़हार-ए-पाक-बाज़ी-ओ-ज़ौक़-ए-नज़र ग़लत