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ग़ज़ल
इश्क़ अहल-ए-वफ़ा बीच उसे क़द्र है क्या ख़ाक
वो दिल कि जो गर्द-ए-रह-ए-दिलदार न होवे
इश्क़ औरंगाबादी
ग़ज़ल
मुक़ाबिल हो हमारे कस्ब-ए-तक़लीदी से क्या ताक़त
अभी हम महव कर देते हैं आईने को इक हू में
इश्क़ औरंगाबादी
ग़ज़ल
रखता हूँ इस लिए दिल-ए-सोज़ाँ ओ चश्म-ए-तर
जिऊँ शम्अ दर्द-ए-दाग़ से इश्क़-आफ़्रीदा हूँ
इश्क़ औरंगाबादी
ग़ज़ल
तरद्दुद में है मेरे ज़ब्ह के ऐ 'इश्क़' वो अब तक
निगाह-ए-नाज़ से बिस्मिल हुआ जल्लाद क्या जाने
इश्क़ औरंगाबादी
ग़ज़ल
झुका कर एक मैं सर नाम अपना कर दिया रौशन
फ़ुनून-ए-इश्क़ में कम कोई परवाना सा पक्का है