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ग़ज़ल
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में
लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
जहाँ दरिया कहीं अपने किनारे छोड़ देता है
कोई उठता है और तूफ़ान का रुख़ मोड़ देता है
वसीम बरेलवी
ग़ज़ल
मोहब्बत हो तो जाती है मोहब्बत की नहीं जाती
ये शो'ला ख़ुद भड़क उठता है भड़काया नहीं जाता
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
पढ़ता नमाज़ मैं भी हूँ पर इत्तिफ़ाक़ से
उठता हूँ निस्फ़ रात को दिल की सदा के साथ