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ग़ज़ल
है उतना वाक़ि'आ उस से न मिलने की क़सम खा ली
तअस्सुफ़ इस क़दर गोया वज़ारत छोड़ दी हम ने
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
नक़्श को उस के मुसव्विर पर भी क्या क्या नाज़ हैं
खींचता है जिस क़दर उतना ही खिंचता जाए है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
एक ही धरती हम सब का घर जितना तेरा उतना मेरा
दुख सुख का ये जंतर-मंतर जितना तेरा उतना मेरा
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
मुझ में और उस में सिर्फ़ मुक़द्दर का फ़र्क़ है
वर्ना वो शख़्स जितना है उतना तो मैं भी हूँ