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ग़ज़ल
हमारे हाँ बिछड़ना भी कबीरा नेकियों में है
हमारे हाँ मुसलसल 'इश्क़ अब इस तौर होता है
सादिया सफ़दर सादी
ग़ज़ल
तुझे मुबारक कहूँ तो कैसे कहूँ मोहर्रम
कि तेरे अंदर वो कुछ कबीरा से ग़म भी हैं ना
ताहिर सऊद किरतपूरी
ग़ज़ल
सच कहूँ मेरी क़ुर्बत तो ख़ुद उस की साँसों का वरदान है
मैं जिसे छोड़ देता हूँ उस को क़बीला नहीं छोड़ता