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ग़ज़ल
कोई छींटा पड़े तो 'दाग़' कलकत्ते चले जाएँ
अज़ीमाबाद में हम मुंतज़िर सावन के बैठे हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
कलकत्ते ने नाबूद किया ख़्वाब-ए-ख़ुशी को
पल-भर मुझे इस शहर में राहत नहीं आती
वाजिद अली शाह अख़्तर
ग़ज़ल
कलकत्ते को जाना था तो गाड़ी पकड़ा बम्बई की
पूछ रहा है चाँद का रस्ता ये मालूम न वो मालूम
पागल आदिलाबादी
ग़ज़ल
मालिक-उल-मुल्क नसारा हुए कलकत्ते के
ये तो निकली अजब इक वज़्अ' की जंजाल की खाल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
कोई छींटा पड़े तो 'दाग़' कलकत्ते चले जाएँ
अज़ीमाबाद में हम मुंतज़िर सावन के बैठे हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
घर के दुखड़े शहर के ग़म और देस बिदेस की चिंताएँ
इन में कुछ आवारा कुत्ते हैं कुछ हम ने पाले हैं
अमीक़ हनफ़ी
ग़ज़ल
दिल के कहने पे चलूँ अक़्ल का कहना न करूँ
मैं इसी सोच में हूँ क्या करूँ और क्या न करूँ
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
हमारी बेकसी को देख कर सारा जहाँ रोया
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
जुदा करेंगे न हम दिल से हसरत-ए-दिल को
अज़ीज़ क्यूँ न रखें ज़िंदगी के हासिल को
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
आँख में जल्वा तिरा दिल में तिरी याद रहे
ये मयस्सर हो तो फिर क्यूँ कोई नाशाद रहे