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ग़ज़ल
था दरबार-ए-कलाँ भी उस का नौबत-ख़ाना उस का था
थी मेरे दिल की जो रानी अमरोहे की रानी थी
जौन एलिया
ग़ज़ल
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
सब एक रंग में हैं मय-कदे के ख़ुर्द ओ कलाँ
यहाँ तफ़ावुत-ए-पीर-ओ-जवाँ नहीं होता
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
ग़ज़ल
सुना जब तेरे दीवाने ने गुलशन में बहार आई
क़बा सहरा से ख़ुद दामन में ले कर नोक-ए-ख़ार आई
राज कुमारी सूरज कला सरवर
ग़ज़ल
शराब-ए-इश्क़ से मख़मूर सब ख़ुर्द-ओ-कलाँ होंगे
तुयूर-ए-बाग़-ए-उल्फ़त महव-ए-दीदार-ए-बुताँ होंगे
सय्यद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी
ग़ज़ल
आँसुओं को क़हक़हों का रूप दे जाता है वो
इस तरह हँसता तो है लेकिन कला-कारी के बा'द