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ग़ज़ल
इसी कश्मकश में गुज़रीं मिरी ज़िंदगी की रातें
कभी सोज़-ओ-साज़-ए-'रूमी' कभी पेच-ओ-ताब-ए-'राज़ी'
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
दर्शन सिंह
ग़ज़ल
नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आश्ना फिर भी
हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है