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ग़ज़ल
क़त्ल-ए-हुसैन अस्ल में मर्ग-ए-यज़ीद है
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के ब'अद
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
देखा गया न मुझ से मआनी का क़त्ल-ए-आम
चुप-चाप मैं ही लफ़्ज़ों के लश्कर से कट गया
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
ये क़त्ल-ए-ख़िज़ाँ पर हैं जवानान-ए-चमन शाद
हर सम्त गुल-ओ-लाला उड़ाते हैं निशाँ सुर्ख़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
ख़ून-ए-रग-ए-हुसैन पे क़ुर्बान जाइए
क्या क्या मिला है मार्का-ए-कर्बला के साथ
सय्यद बशीर हुसैन बशीर
ग़ज़ल
है अपने क़त्ल की दिल-ए-मुज़्तर को इत्तिलाअ
गर्दन को इत्तिलाअ न ख़ंजर को इत्तिलाअ
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
वा'इज़ तू बाग़-ए-हुस्न की इक बार सैर कर
मुमकिन है दिलकशी में हो ख़ुल्द-ए-बरीं शरीक
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
ये क्या ख़बर तुम्हें किस रूप में हूँ ज़िंदा मैं
मिले न जिस्म तो साए को क़त्ल कर जाना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
कर ले मंज़ूर सना-ख़्वानी-ए-'काज़िम' को हुसैन
तू भी ज़िंदा है तिरी कर्ब-ओ-बला ज़िंदाबाद