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ग़ज़ल
मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचा कर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मैं ने उस के वस्ल में भी हिज्र काटा है कहीं
वो मिरे काँधे पे रख लेता था सर रोता न था
तहज़ीब हाफ़ी
ग़ज़ल
इस दर्द में क्या क्या है रुस्वाई भी लज़्ज़त भी
काँटा हो तो ऐसा हो चुभता हो तो ऐसा हो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
चलते चलते कुछ थम जाना फिर बोझल क़दमों से चलना
ये कैसी कसक सी बाक़ी है जब पाँव में वो काँटा भी नहीं
फ़हमीदा रियाज़
ग़ज़ल
यूँही तो नहीं दश्त में पहुँचे यूँही तो नहीं जोग लिया
बस्ती बस्ती काँटे देखे जंगल जंगल फूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
दस्त-ए-क़ातिल से कुछ उम्मीद-ए-शफ़ा थी लेकिन
नोक-ए-ख़ंजर से भी काँटा न गुलू का निकला
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
जब दिल था शगुफ़्ता गुल की तरह टहनी काँटा सी चुभती थी
अब एक फ़सुर्दा दिल ले कर गुलशन की तमन्ना कौन करे