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ग़ज़ल
मैं 'काविश'-ए-ला-हर्फ़-ए-तकल्लुम से हूँ नादिम
वो जिस को कि माज़ी का कोई ग़म भी नहीं है
इम्तियाज़ काविश
ग़ज़ल
उठ कर जो गया उस का कहते हैं जहाँ वाले
वो ‘काविश’-ए-बिस्मिल था इक रौनक़-ए-महफ़िल था
इम्तियाज़ काविश
ग़ज़ल
हर सम्त सेहन-ए-ज़ात में फैले हुए साए मिरे
बैठा है तख़्त-ए-फ़िक्र पर सिमटा हुआ दिलबर मिरा
काविश बद्री
ग़ज़ल
बे-दम किए जाता हूँ मैं ये जुर्म-ए-मोहब्बत
मुंसिफ़ बने फिरते हो सज़ा क्यों नहीं देते
इम्तियाज़ काविश
ग़ज़ल
इक बर्ग-ए-तमन्ना थी सो जल उट्ठी है 'काविश'
इक वादा-ए-दिल था सो नज़र आया शिकन में
इम्तियाज़ काविश
ग़ज़ल
ख़्वाब-ए-उल्फ़त भी हक़ीक़त का निशाँ पूछता है
अब मिरा दोस्त मिरी जाँ की अमाँ पूछता है
इम्तियाज़ काविश
ग़ज़ल
लहू सहबा बदन मीना-ए-ख़ाकी बन गया 'काविश'
ज़रा देखो तो यूँ फ़ैज़ान-ए-साक़ी कौन रखता है
काविश बद्री
ग़ज़ल
क्या कहें उस 'आलम-ए-वहदत का हम 'काविश' कि जब
रौशनी ख़्वाबों में लेकिन तीरगी आँखों में थी
इम्तियाज़ काविश
ग़ज़ल
सर-ए-वक़्त क्या लिखा है वो भी देख लेंगे 'काविश'
दिल-ए-बंद पर जुनूँ के नए बाब वा हुए तो