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ग़ज़ल
मेरी बर्बादी में इक शाख़ भी शामिल थी मिरी
ख़ुद कुल्हाड़ी तो नहीं काट गई मेरा वजूद
फ़ैज़ ख़लीलाबादी
ग़ज़ल
सर-ए-खुसरव से नाज़-ए-कज-कुलाही छिन भी जाता है
कुलाह-ए-ख़ुसरवी से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मिरे हल्क़ा-ए-सुख़न में अभी ज़ेर-ए-तर्बियत हैं
वो गदा कि जानते हैं रह-ओ-रस्म-ए-कज-कुलाही
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
पस्ती-ए-ज़मीं से है रिफ़अत-ए-फ़लक क़ाएम
मेरी ख़स्ता-हाली से तेरी कज-कुलाही भी