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ग़ज़ल
कृष्ण को चाहता हूँ आशिक़-ए-सुब्हाँ हूँ मैं
सब मुझे कहते हैं हिन्दू वो मुसलमाँ हूँ मैं
असग़र निज़ामी
ग़ज़ल
उम्र बढ़ती जा रही है ज़ीस्त घटती जाए है
जिस्म की ख़ुश्बू की ख़्वाहिश दूर हटती जाए है
कृष्ण मोहन
ग़ज़ल
सियासत में अदाकारी तो पहले से भी बढ़ कर है
हर इक लीडर में मक्कारी तो पहले से भी बढ़ कर है
कृष्ण प्रवेज़
ग़ज़ल
मन में जोत जगाने वाले त्याग गए ये डेरा जोगी
उत्तर दक्खिन पूरब पच्छिम चारों ओर अंधेरा जोगी
बिमल कृष्ण अश्क
ग़ज़ल
नई पौद के सोच-महल में उट्ठीं नई नई दीवारें
जैसे घर वाले वैसा घर जैसा घर वैसी दीवारें
बिमल कृष्ण अश्क
ग़ज़ल
कृष्ण मोहन
ग़ज़ल
मैं किस से करता यहाँ गुफ़्तुगू कोई भी न था
नहीं था मेरे मुक़ाबिल जो तू कोई भी न था