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ग़ज़ल
जो एक था ऐ निगाह तू ने हज़ार कर के हमें दिखाया
यही अगर कैफ़ियत है तेरी तो फिर किसे ए'तिबार होगा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ज़माने भर की कैफ़ियत सिमट आएगी साग़र में
पियो उन अँखड़ियों के नाम पर आहिस्ता आहिस्ता
मुस्तफ़ा ज़ैदी
ग़ज़ल
दिल-ए-कम-अलम पे वो कैफ़ियत कि ठहर सके न गुज़र सके
न हज़र ही राहत-ए-रूह था न सफ़र में रामिश राह थी
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
वो मेरी जान-ओ-दिल की कैफ़ियत से ख़ूब वाक़िफ़ है
वो कितनी बार मेरी रूह में शामिल हुई होगी