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ग़ज़ल
अपनी आँखों में जगह देते हैं मुझ को 'साबिर'
मेरे अहबाब मुझे कोहल-ए-बसर समझे हैं
फ़ज़ल हुसैन साबिर
ग़ज़ल
मैं किस की निगाहों का हूँ वहशी कि मिरी ख़ाक
इक कोहल-ए-बसर चश्म-ए-ग़ज़ालाँ के लिए है
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
कैसे आशोब-ए-दानिश पे रखता नज़र मैं कम-आगाह था
दे गया मुझ को आँखों के बदले कोई बे-बसर आइने