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ग़ज़ल
मिरा रहना तुम्हारे दर पे लोगों को खटकता है
अगर कह दो तो उठ जाऊँ जो रहम आए तो रहने दो
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
हुस्न को क्या दुश्मनी है इश्क़ को क्या बैर है
अपने ही क़दमों की ख़ुद ही ठोकरें खाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
आग़ाज़-ए-मुसीबत होता है अपने ही दिल की शामत से
आँखों में फूल खिलाता है तलवों में काँटे बोता है
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
यही शैख़-ए-हरम है जो चुरा कर बेच खाता है
गलीम-ए-बूज़र ओ दलक़-ए-उवेस ओ चादर-ए-ज़हरा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
इस शहर-ए-बे-वफ़ा में जफ़ाओं के बा'द भी
'अर्पित' वफ़ा के फूल खिलाता रहा हूँ मैं